दलहनी फसलें किसान और आम इन्सान सभी की जिंदगी बचा सकती है। हर घर में पांव पसार रही बीमरियां बेहद कम हो सकती हैं बशर्ते भोजन की हर थाली में हर दिन दाल शामिल हो। यह तभी संभव है जबकि इनकी कीमतें नींचे आएं। किसान की फसल के समय उन्हें भी उचित मूल्य मिले। दलहनी फसलें केमिकल फर्टिलाइजर नहीं चाहतीं। इसी लिए दलहन में प्रोटीन आदि तत्वों के अलावा आर्गेनिक कंटेंट ज्यादा होता है। सरकारों की उपेक्षित नीतियों के चलते फसल के समय किसानों को दालहनी फसलों की समर्थन मूल्य के सापेक्ष आधी कीमतें भी नहीं मिलतीं इधर बिचौलिए और भरसारिए मोटा माल पैदा करते हैं। दलहन में पानी भी कम लगता है। अहम बात यह है कि इसमें किसान की कल्टीवेशन कास्ट यानी कि लागत भी बेहद कम आती है। इसके बाद भी किसान इसे कम लगाते हैं तो उसके कई कारण हैं और इनके लिए सरकारें ही जिम्मेवार हैं। दहलहन के मामले में भारत दुनिया का सबसे बड़ा उपभोक्ता और आयायत देश है। केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने विश्व दलहन दिवस पर पिछले दिनों दलहन उत्पादन में टात्मनिर्भरता की ओर बढ़ने वाली सोच को सार्वजनिक किया लेकिन वह इस दिशा में क्या कदम उठाएंगे यह देखेने वाली बात है।
देश ने 2018-19 के फसल वर्ष (जुलाई-जून) के दौरान 2.34 करोड़ टन दलहन का उत्पादन हुआ । यह 2.6 से 2.7 करोड़ टन की घरेलू मांग से कम है । इस अंतर की भरपाई आयात से की गई। हालांकि, चालू साल में सरकार 2.63 करोड़ टन दलहन उत्पादन का लक्ष्य लेकर चल रही है।
दलहन के लिए आवारा और जंगली पशु सबसे बड़ी दिक्कत है। जिन इलाकों में पानी की बेहद कमी है वहां दलहन का क्षेत्र बढ़ाया जा सकता है। बड़े क्षेत्र में किसी फसल को लगने से किसानों का आवारा पशुओं आदि का नुकसान भी कम हो जाता है।