भारत में कृषि का संकट गहराता जा रहा है। रबी और चालू ज़ायद सीजन में गाजर, टमाटर, फूलगोभी, पत्ता गोभी और शिमला मिर्च जैसी सब्जियों की खेती घाटे का सौदा साबित हो रही है।
किसान मेहनत और पूंजी लगाकर फसल उगाते हैं, लेकिन जब बाजार में उन्हें उनकी उपज का सही मूल्य नहीं मिलता, तो उनकी पूरी मेहनत बेकार चली जाती है। यह स्थिति केवल मौसमी नहीं है, बल्कि कृषि तंत्र में गहरे बैठे आर्थिक असंतुलन को दर्शाती है।
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जब किसान लगातार घाटा सहते हैं, तो उन्हें कर्ज लेना पड़ता है। ब्याज दरें अधिक होती हैं, और जब समय पर फसल का अच्छा मूल्य नहीं मिलता, तो कर्ज चुकाना मुश्किल हो जाता है।
इस स्थिति में, किसान मजबूरन अपनी जमीन बेचने लगते हैं। नतीजा यह होता है कि कृषि भूमि धीरे-धीरे किसानों से निकलकर अमीर और शौकिया ज़मीन मालिकों के पास जा रही है।
ये नए भू-स्वामी खेती को केवल निवेश के रूप में देखते हैं और अक्सर कृषि की जगह रियल एस्टेट, फार्महाउस, या औद्योगिक विकास में अपनी भूमि का उपयोग करने लगते हैं।
अगर यह स्थिति जारी रही, तो कुछ वर्षों में देश में वास्तविक किसान कम हो जाएँगे और खेती एक व्यापारिक गतिविधि बनकर रह जाएगी।
जो लोग परंपरागत रूप से खेती करते आए हैं, वे अपनी पुश्तैनी जमीनें खो देंगे, और कृषि एक महँगा पेशा बन जाएगी, जिसमें केवल पूँजीपति ही टिक पाएँगे। यह देश की खाद्य सुरक्षा के लिए भी एक गंभीर चुनौती है।
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यदि वर्तमान स्थिति नहीं बदली, तो आने वाले वर्षों में गरीब और मध्यम वर्गीय किसान खेती छोड़ने को मजबूर हो जाएँगे और भारत की कृषि भूमि अमीरों के हाथों में केंद्रित हो जाएगी।
खेती को लाभदायक बनाना ही किसानों की जमीन बचाने का एकमात्र तरीका है। सरकार, समाज और किसानों को मिलकर ऐसी रणनीतियाँ अपनानी होंगी, जो उन्हें खेती में बनाए रखें और उन्हें कर्ज में डूबने से बचाएँ। अन्यथा, आने वाली पीढ़ियों के लिए किसान केवल एक ऐतिहासिक कथा बनकर रह जाएँगे।