Published on: 11-Oct-2022
प्राचीन सभ्यताओं के दौरान कैमोमाइल (Chamomile) के पौधे का इस्तेमाल कई रोगों के इलाज में जड़ी-बूटी के लिए किया जाता था। यह 'मैट्रीकेरिया कैमोमिला' नामक प्रजाति से संबंध रखने वाला एक पौधा है।
प्राचीन समय में दक्षिणी-पूर्वी यूरोप के क्षेत्र में इसका उत्पादन होता था और वर्तमान में यह पौधा जर्मनी, फ्रांस और रूस जैसे देशों में उगाया जाता है। पिछले 10 सालों से पंजाब, महाराष्ट्र और जम्मू कश्मीर क्षेत्र में रहने वाले भारतीय युवा किसान भी कैमोमाइल पौधे का उत्पादन कर अच्छा मुनाफा कमा रहे हैं।
क्या है कैमोमाइल का पौधा और इसके सेवन से होने वाले फायदे ?
वर्तमान में कैमोमाइल पौधे के गीले फूलों को तोड़कर उनमें से नीले रंग का एक तेल निकाला जाता है, जिसका इस्तेमाल कई एंटीसेप्टिक दवाओं में किया जाता है।
कृषि वैज्ञानिकों की राय में इस पौधे के फूल को सुखाकर इससे एक पाउडर भी बनाया जा रहा है, जिससे एंटी-इन्फ्लेमेटरी
(Anti-Inflammatory) तत्व के रूप में घाव पर लगाने में इस्तेमाल किया जा सकता है।
इसके अलावा कैमोमाइल के फूलों से
'एल्फा बिसाबोलोल ऑक्साइड' (Alfa Bisabolol oxide) नामक एक रासायनिक पदार्थ भी प्राप्त किया जाता है, जिसे हमारे शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने के साथ ही चोट वाले निशान पर लगाया जाता है।
बदलते वैश्विक परिदृश्य में अब कई अंतरराष्ट्रीय कंपनियां कैमोमाइल के पौधे से चाय बनाने का काम भी कर रही हैं, इसके लिए पहले फूलों को तोड़ कर कुछ समय तक धूप में सुखाया जाता है और फिर उन्हें गर्म करके पूरी तरीके से उपचारित किया जाता है। हल्के मीठे स्वाद वाली यह चाय, ह्रदय और शरीर को स्वस्थ रखने में सहायता करती है।
[caption id="attachment_11112" align="alignnone" width="750"]
कैमोमाइल चाय पत्ती खुली हुई (Loose leaf chamomile tea)(Source: Wiki, Author-ianakoz)[/caption]
वर्तमान में एलोपैथी विज्ञान के अलावा होम्योपैथी और आयुर्वेदिक औषधियों के निर्माण में भी इस पौधे के फूलों का काफी इस्तेमाल किया जा रहा है।
कैमोमाइल के उत्पादन के लिए आवश्यक जलवायु एवं मृदा :
वर्तमान में वैश्विक स्तर पर जर्मन कैमोमाइल को सबसे ज्यादा उत्पादित किया जाता है। इस पौधे के उत्पादन के लिए नमी वाले क्षेत्र की आवश्यकता होती है और तापमान 5 डिग्री से लेकर 20 डिग्री सेंटीग्रेड के मध्य होना चाहिए।
भारत में रबी के सीजन में इस पौधे की खेती की जाती है और अक्टूबर महीने के आखिरी सप्ताह या नवंबर महीने के पहले पखवाड़े तक इसकी बुवाई की जानी चाहिए।
ये भी पढ़ें: कीचड़ में ही नहीं खेत में भी खिलता है कमल, कम समय व लागत में मुनाफा डबल !
कैमोमाइल के बीज बोने के दौरान बरती जाने वाली सावधानियां :
इसको पौधे के बीजों को इसके फूलों से प्राप्त किया जाता है।
वर्तमान में महाराष्ट्र राज्य के तटीय इलाकों में इसकी सीधी बुवाई वाली तकनीक को अपनाया जाता है, जिसमे बीज का सीधे खेत में ही रोपण किया जाता है, जबकि पंजाब और जम्मू कश्मीर क्षेत्र में नर्सरी विधि के माध्यम से पौधरोपण किया जाता है।
एक हेक्टेयर क्षेत्र के लिए आधा किलोग्राम बीज पर्याप्त होते हैं। किसान भाई ध्यान रखें कि बीजों के अंकुरण के समय अधिकतम तापमान 20 डिग्री सेंटीग्रेड से कम होना चाहिए। वर्तमान में उतर भारत में रहने वाले कुछ किसान भाई गर्मियों के मौसम में भी पॉलीहाउस तकनीक की मदद से इस फसल का उत्पादन कर रहे हैं।
भारतीय जलवायु के अनुसार जनवरी महीने की शुरुआत तक पौधे की तेजी से वृद्धि होती है, हालांकि अगले एक महीने तक इसकी वर्द्धि धीमी गति से होती है। बेहतर उर्वरकों के इस्तेमाल से फरवरी महीने के अंतिम सप्ताह में फूल तोड़ कर इस्तेमाल योग्य बनाया जा सकता है।
मार्च महीने की शुरुआती दौर में तापमान 30 डिग्री से ऊपर हो जाने पर इस पौधे से अधिक बीज प्राप्त होते हैं और बेहतर परिपक्वता की वजह से इससे बनने वाली चाय का स्वाद भी बेहतरीन हो जाता है। इसीलिए पंजाब के भटिंडा क्षेत्र में रहने वाले किसान गुरदीप सिंह बताते हैं कि वह कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के जरिए मार्च महीने के शुरुआती दिनों में फूलों को तोड़कर बीज को बाजार में बेचते हैं, इससे वह तैयार उत्पाद को चाय बनाने वाली कंपनियों को अधिक दाम पर बेच सकते हैं।
पौधों की सिंचाई के दौरान नमी के स्तर को लगातार बनाए रहना चाहिए, इसके लिए समय-समय पर सीमित मात्रा में सिंचाई करनी चाहिए। पूरी फसल को तैयार करने में 8 से 10 सीमित सिंचाइयों की आवश्यकता होती है।
कैसे करें खाद और उर्वरकों का बेहतर प्रबंधन तथा खरपतवार नियंत्रण ?
पौधे की बेहतर वृद्धि के लिए एक बार फूल निकलने पर नाइट्रोजन का इस्तेमाल किया जा सकता है। हालांकि कृषि वैज्ञानिकों की राय में कैमोमाइल की फसल पर फास्फोरस और पोटेशियम जैसे रासायनिक उर्वरकों का प्रभाव बहुत ही कम होता है, इसलिए इनके प्रयोग से बचना चाहिए।
कैमोमाइल के पौधे शुरुआत में बहुत ही धीमी गति से बढ़ते हैं, इसीलिए खरपतवार तेजी से बड़ी हो जाती है और उसके नियंत्रण में समस्या होती है। शुरुआत में खरपतवार को हाथ से ही खुरपी की मदद से समय-समय पर निराई गुड़ाई कर नियंत्रित करना सुविधाजनक रहता है।
वर्तमान में कुछ रासायनिक उर्वरकों जैसे डी-सोडियम साल्ट और ऑक्सीफ्लोरफेन का इस्तेमाल कर भी खरपतवार को नष्ट किया जा रहा है।
कैमोमाइल के पौधे से प्राप्त होने वाली उपज :
भारतीय जलवायु और किसानों के द्वारा किये जाने वाले उर्वरकों के प्रयोग को आधार मानते हुए कृषि वैज्ञानिकों की राय में प्रति हेक्टेयर क्षेत्र से लगभग 4000 किलोग्राम ताजे फूल इकट्ठे किए जा सकते हैं, हालांकि कुछ क्षेत्रों में बदलते तापमान की वजह से अधिक उत्पादन भी प्राप्त हो सकता है।
[caption id="attachment_11114" align="alignnone" width="1200"]
Chamaemelum Nobile (Source Wikimedia; Author- H. Zell)[/caption]
अप्रैल के पहले सप्ताह में फूलों का वजन भी अधिक प्राप्त होता है और 1000 फूलों में 150 किलोग्राम तक वजन हो जाता है।
वर्तमान में कई बड़े किसान कोल्ड स्टोरेज सुविधा की मदद से कैमोमाइल चाय की अधिक मांग होने के समय ही अपने उत्पाद को बाजार में बेचते हैं, इससे उन्हें अधिक मुनाफा होता है।
ये भी पढ़ें: तितली मटर (अपराजिता) के फूलों में छुपे सेहत के राज, ब्लू टी बनाने में मददगार, कमाई के अवसर अपार
वर्तमान में स्वास्थ्य के प्रति सतर्क जनसंख्या कैमोमाइल चाय का इस्तेमाल एक एंटीऑक्सीडेंट और पाचन क्षमता में सुधार करने के लिए कर रही है। प्रतिदिन कैमोमाइल चाय के सेवन से शरीर की प्रतिरोधी क्षमता तो बढ़ती ही है, साथ ही ब्लड शुगर और कोलेस्ट्रॉल के स्तर को भी कम किया जा सकता है।
आशा करते हैं हमारे किसान भाइयों को
Merikheti.com के माध्यम से भारतीय परिक्षेत्र में अभी तक अनजान
'कैमोमाइल फसल' के उत्पादन के बारे में संपूर्ण जानकारी मिल गई होगी और भविष्य में आप भी बेहतर कीट और रोग प्रबंधन तथा लागत-उत्पादन अनुपात को समझते हुए अच्छा मुनाफा कमा पाएंगे।