भारत में कीवी की खेती: सही तकनीक और देखभाल के टिप्स

Published on: 08-Nov-2024
Updated on: 08-Nov-2024
Fresh whole and halved kiwi fruit with vibrant green flesh on a dark background
फसल बागवानी फसल फल

कीवी फल आज के दिन बहुत लोकप्रिय और महंगे फलों में से एक हैं। ये फल जीवंत हरी त्वचा और अनूठे स्वाद के लिए पसंद किया जाता हैं। इसलिए ये दुनिया भर के किसानों के लिए एक मूल्यवान फसल हैं। 

कीवी फल न्यूजीलैंड, इटली, अमेरिका, चीन, जापान, ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस, चिली और स्पेन में व्यापक रूप से उगाया जाता है। 

भारत में भी अब इसकी खेती होने लगी हैं, आज के इस लेख में हम आपको भारत में कीवी की खेती के बारे में जानकारी देंगे।

कीवी फल के लाभ

कीवी को Chinese gooseberry के नाम से जाना जाता हैं और इसका वैज्ञानिक नाम Actinidia deliciosa हैं। कीवी फल का उच्च पोषक और औषधीय महत्व भी है।

यह विटामिन बी, विटामिन सी, फॉस्फोरस, पोटेशियम और कैल्शियम जैसे खनिजों का एक समृद्ध स्रोत है। 

कीवी फलों को ताजा, सलाद और डेजर्ट या अन्य फलों के साथ मिलाकर खाया जाता है। इसका उपयोग स्क्वैश और वाइन बनाने में भी किया जाता है।

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भारत में कीवी की खेती

भारत में कीवी ज्यादातर हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, सिक्किम, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश और केरल की मध्य पहाड़ियों में उगाया जाता है।

भारत में इसकी खेती कुछ समय पहले ही होनी शुरू हुई हैं, इस कारण क्षेत्रफल और उत्पादन के अनुमान अभी तक उपलब्ध नहीं हुए हैं।

कीवी की खेती के लिए कृषि-जलवायु आवश्यकताएँ

कीवी की खेती के लिए अत्यंत ठंडी जलवायु की आवश्यकता होती हैं। इसकी खेती ऐसे स्थानों पर की जा सकती हैं जहाँ तापमान सर्दी के दौरान 7 डिग्री सेल्सियस से नीचे रहता हो।

कीवी के पौधे को समुद्र तल से 800-1500 मीटर की ऊंचाई पर उगाया जा सकता है। इसकी खेती के लिए औसत वर्षा 150 से.मी. प्रति वर्ष की आवश्यकता होती हैं।

विकास अवधि के दौरान वर्षा का वितरण अच्छी तरह से होना चाहिए। गर्मियों में, उच्च तापमान और कम आर्द्रता के कारण पत्तियां झुलस सकती हैं। इसलिए निचले इलाकों में इसकी खेती में धूप और गर्मी का तनाव मुख्य समस्या है।

कीवी की खेती के लिए मिट्टी

कीवी की खेती करने के लिए गहरी, समृद्ध, अच्छी जल निकासी वाली बलुई दोमट मिट्टी उपयुक्त होती हैं।

मिट्टी का पीएच 6.9 से थोड़ा कम होने पर अधिक फसल की उपज मिलती है। पीएच 7.3 से अधिक होने पर मैंगनीज की कमी के कारण उपज कम होती हैं।

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भारत में कीवी की उन्नत किस्में

किसी भी फसल के उत्पादन में किस्मों का सबसे अधिक योगदान होता हैं। कीवी की खेती से अच्छी उपज प्राप्त करे के लिए भारत में भी कई उन्नत किस्में उपलब्ध हैं जो की निम्नलिखित हैं: 

  • एबट
  • एलिसन
  • ब्रूनो
  • हेवर्ड
  • मोंटी
  • टोमुरी

कीवी के पौध रोपण के लिए भूमि की तैयारी

  • कीवी की बेले होती हैं इसलिए उनको लगने के लिए पहाड़ की ढलानों पर खड़ी भूमि को सीढ़ीदार छतों के रूप में तैयार किया जाता है।
  • पौधों को अधिकतम धूप मिले इसका लाभ उठाने के लिए पंक्तियों को उत्तर-दक्षिण दिशा में उन्मुख किया जाना चाहिए।
  • इसके बाग की सफल स्थापना के लिए मिट्टी की पूरी तरह से तैयारी आवश्यक है।
  • गड्ढों की तैयारी, गोबर की खाद का मिश्रण और गड्ढों को भरने का काम दिसंबर तक पूरा करना है।

पौध रोपण का समय और प्रक्रिया 

कीवी के पौधों को वानस्पतिक रूप से कटिंग और ग्राफ्टिंग के माध्यम से तैयार किया जाता हैं। पौधों की रोपाई जनवरी के महीने तक पूरी कर लेनी चाहिए।

नर्सरी से पौधों को उखड कर उसी गहराई पर रोपण करना चाहिए जिस गहराई पर नर्सरी में पौधे उग रहे थे। पौधों को ढड्डो में डाल कर अच्छे से जड़ों के चारों ओर मिट्टी लगानी चाहिए।

रोपण करते समय पौधे से पौधे की दुरी का विशेष ध्यान देना बहुत आवश्यक होता हैं। आमतौर पर कीवी की खेती में रोपण के लिए टी-बार और पेरगोला प्रणाली अपनाई जाती है। 

टी-बार प्रणाली में पंक्ति से पंक्ति की दुरी 4 मीटर और 5-6 मी. पौधे से पौधे की दुरी रखनी होती हैं। पेरगोला प्रणाली में पंक्ति और पौधे की बीच की दुरी 6 मीटर तक होती है।

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कीवी की खेती में खाद और उर्वरक प्रबंधन

कीवी के पौधों में 20 कि.ग्रा. गोबर की खाद और 0.5 कि.ग्रा. 15% नाइट्रोजन युक्त एनपीके मिश्रण को हर साल लगाने की सिफारिश की जाती है।

पौधों की 5 वर्ष की आयु के बाद 850-900 ग्राम नाइट्रोजन, 500-600 ग्राम फॉस्फोरस और 800-900 ग्राम पोटाश का इस्तेमाल किया जाना चाहिए।

कीवी की खेती में सिंचाई प्रबंधन

सिंचाई सितंबर-अक्टूबर के दौरान प्रदान की जाती है, जब फल वृद्धि और विकास के प्रारंभिक चरण में होता है। कीवी की खेती में 10-15 दिन के अंतराल पर सिंचाई करना लाभकारी पाया गया है।

कीवी फल की तुड़ाई 

कीवी की बेल पर 4-5 साल बाद फल आने शरू हो जाते हैं। 7-8 साल की उम्र वाले पौधे और बेले अधिक उत्पादन देती हैं।

तापमान में भिन्नता के कारण फल कम ऊंचाई पर पहले पकते हैं और अधिक ऊंचाई पर बाद में पकते हैं। बड़े आकार के फलों को पहले तोडा जाता हैं।