शिमला मिर्च का सब्जी के रूप में सेवन करना बहुत सारे लोगों को काफी पसंद है। इसलिए सालभर शिमला मिर्च की मांग बनी रहती है।
दरअसल, शिमला मिर्च मध्य क्षेत्रों की एक प्रमुख नकदी फसल है। इसकी पैदावार विशेष रूप से कांगड़ा, मंडी, कुल्लू व चम्बा, सोलन और सिरमौर में की जाती है।
शिमला मिर्च की खेती के लिए बेहतर जल निकासी वाली मध्यम रेतीली दोमट मृदा वाली जमीन सबसे अच्छी होती है। मृदा का पीएच मान 5.5 से 6.8 तथा जैविक कार्बन 1% प्रतिशत से ज्यादा होनी चाहिए।
मृदा में पीएच स्तर, जैविक कार्बन, गौण पोषक तत्व (एनपीके), सूक्ष्म पोषक तत्व तथा खेत में सूक्ष्म जीवों के प्रभाव की मात्रा की जांच करवाने के लिए साल में एक बार मृदा परीक्षण बेहद आवश्यक है।
अगर जैविक कार्बन तत्व एक प्रतिशत से कम हो तो खेत में 20-25 टन/हे० गोबर की खाद का इस्तेमाल करें। साथ ही, खेत में अच्छी तरह से 2-3 बार हल चलाकर गोबर को मिलाएं।
हर बुआई के उपरांत सुहागा प्रयोग में लाऐं, जिससे कि खेत में किसी प्रकार के ढेले न रहें और खेत सही तरह से एकसार हो सके।
शिमला मिर्च की बुवाई का समय निचले पर्वतीय क्षेत्रों में - फरवरी से मार्च तो वहीं मध्य पर्वतीय क्षेत्रों में मार्च से मई का होता है।
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ऊंचे पर्वतीय क्षेत्र - शिमला मिर्च की रोपण योग्य पौध को निचले या मध्य पर्वतीय इलाकों से लाना अथवा पौध को नियन्त्रण वातावरण में इस प्रकार तैयार करें, जिससे अप्रैल-मई में रोपाई हो सके।
बीज अंकुरण के समय तापमान 20° सैल्सियस होना चाहिए। जब पौध 10-15 सें.मी. ऊंची हो जाए तो खेत में शाम के समय इसकी रोपाई करें। रोपाई के बाद सिंचाई करना और कुछ दिनों तक सुबह-शाम पानी देना अति आवश्यक है।
आपकी जानकारी के लिए शिमला मिर्च की कुछ अनुमोदित किस्मों की जानकारी। इन किस्मों में केलीफोर्निया वन्डर, यलो वन्डर, सोलन भरपूर, भारत, सोलन संकर -1, सोलन संकर -2, है। इंदिरा, डौलर एवं विभिन्न स्थानीय किस्में।
फलीदार जैसी दलहनी परिवार की फसलों के साथ आवर्तन से मृदा में नाईट्रोजन की स्थिति काफी मजबूत होती है। खेत में तीन-चार बार हल चलाएं और हर एक जुताई के उपरांत सुहागा चलाएं, जिससे कि मृदा भुरभुरी हो जाए।
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खेत में 20 टन/हे० गोबर की खाद तथा 2 टन/हे० बी.डी. कम्पोस्ट अथवा 15 टन/हे० वर्मी कम्पोस्ट तथा 2 टन/हे० बी.डी. कम्पोस्ट डालें।
खरपतवार पर काबू करने के लिए आपको फसल चक्र अपनाना चाहिए। हाथ द्वारा खरपतवार निकालने से मृदा काफी ढीली हो जाती है, जो कि मृदा को काफी भुरभुरा बनाती है। रोपाई के 30-50 दिन तक खरपतवार को ना उगने दें। तीन-चार बार गुड़ाई के साथ खरपतवार को बाहर निकाल दें।
बतादें, कि प्रतिरोपण के शीघ्रोपरान्त फूल आने पर और फल विकास की स्थिति में जल का अभाव नहीं होना चाहिए। शुष्क मौसम के दौरान प्रतिरोपण के पश्चात प्रथम महीने 3-4 दिन के समयांतराल पर सिंचाई और उसके बाद फसल तैयार होने तक 7-10 दिन के अन्तराल पर जल निकासी पर अधिक ध्यान दें। खेतों में ज्यादा नमी आने की वजह से फसल बर्बाद हो जाती है। इस वजह से खेत में पानी को ठहरने ना दें।