Published on: 09-Nov-2021
चने की दाल, बेसन, हरे चने, भीगे चने, भुने चने, उबले चने, तले चने की बहुत अधिक डिमांड हमेशा रहती है। इसके अलावा चने के बेसन से नमकीन व मिठाइयां सहित अनेक व्यंजन बनने के कारण इसकी मांग दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। इससे चने के दाम भी पहले की अपेक्षा में काफी अधिक हैं। किसान भाइयों के लिए चने की खेती करना फायदे का सौदा है।
कम मेहनत से अधिक पैदावार
चने की खेती बंजर एवं पथरीली जमीन पर भी हो जाती है। इसकी फसल के लिए सिंचाई की भी अधिक आवश्यकता नहीं होती है। न हीं किसान भाइयों को इसकी खेती के लिए अधिक मेहनत ही करनी पड़ती है लेकिन इस की खेती की निगरानी अवश्य ही अन्य फसलों की अपेक्षा अधिक करनी होती है। आइये जानते हैं कि चने की बुआई किस प्रकार से की जाती है।
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असिंचित क्षेत्रों में होती है अधिकांश खेती
रबी के सीजन की यह फसल असिंचित क्षेत्रों में अधिक की जाती है जबकि सिंचित क्षेत्रों में चने की खेती कम की जाती है। सिंचित क्षेत्र में काबुली चने की खेती अधिक की जाती है। शरदकालीन फसल होने की वजह से से इसकी खेती कम वर्षा वाले तथा हल्की ठंडक वाले क्षेत्रों में की जा सकती है। चने की खेती के लिए दोमट व मटियार भूमि सबसे उत्तम मानी जाती है लेकिन दोमट, भारी दोमट मार, मडुआ, पड़आ, पथरीली, बंजर भूमि पर भी चने की खेती की जा सकती है। काबुली चना के लिए अच्छी भूमि चाहिये। दक्षिण भारत में मटियार दोमट तथा काली मिट्टी में काबुली चने की फसल की जाती है। इस तरह की मिट्टी में नमी अधिक और लम्बे समय तक रहती है। ढेलेदार मिट्टी में भी देशी चने की फसल ली जा सकती है। इसलिये देश के सूखे पठारीय क्षेत्रों में चने की खेती अधिकता से की जाती है। चने की खेती वाली जमीन के लिए यह देखना होता है कि खेत में पानी तो नहीं भरा रहता है। जलजमाव वाले खेतों में चना की खेती नहीं की जा सकती है। ढलान वाले खेतों में भी चने की खेती की जा सकती है। खेत को तैयार करने के लिए किसान भाइयों को चाहिये कि पहली बार जुताई मिट्टी को पलटने वाले हल से करनी चाहिये। उसके बाद क्रास जुताई करके पाटा लगायें। चने की फसल के बचाव हेतु दीपक एवं कटवर्म के रोधी कीटनाशक का इस्तेमाल अंतिम जुताई के समय करें। उस समय हैप्टाक्लोर चार प्रतिशत या क्यूनालफॉस 1.5 प्रतिशत अथवा मिथाइल पैराथियोन 2 प्रतिशत अथवा एन्डोसल्फॉन 1.5 प्रतिशत चूर्ण को 25 किलो मिट्टी में में अच्छी प्रकार से मिलाएं फिर खेत में फैला दें।
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बुआई कब करें
चने की बुआई के समय की बात करें तो उत्तर भारत में चने की बुआई नवम्बर के प्रथम पखवाड़े में होती है। वैसे देश के मध्य भाग में इससे पहले भी चने की बुआई शुरू हो जाती है। सिंचित क्षेत्र में चने का बीज प्रति हेक्टेयर 60 किलो तक लगता है। काबुली चना का बीज 80 से 90 किलो प्रति हेक्टेयर लगता है तथा छोटे दानों वाली चने की किस्मों की खेती में असिंचित क्षेत्र के लिए 80 किलो तक बीज बुआई में लगता है। अधिक पैदावार लेने के लिए तथा पछैती फसल के लिए 20 से 25 प्रतिशत तक अधिक बीज का उपयोग करना होगा।
चने की खेती को अनेक प्रकार के कीट व रोग नुकसान पहुंचाते हैं। इस नुकसान से पहले चने की बुआई से पहले बीज का उपचार व शोधन करना होगा। किसान भाइयों सबसे पहले चने के बीज को फफूंदनाशी, कीटनाशी और राजोबियम कल्चर से उपचारित करें। चने की खेती को उखटा व जड़ गलन रोग से बचाव करने के लिए बीज को कार्बेन्डाजिम या मैन्कोजेब या थाइरम की 2 ग्राम से प्रतिकिलो बीज को उपचारित करें। दीपक व अन्य भूमिगत कीटों से बचाने के लिए क्लोरोपाइरीफोस 20 ईसी या एन्डोसल्फान 35 ईसी की 8 मिलीलीटर मात्रा से प्रतिकिलो बीज को उपचारित करें। इसके बाद राइजोबियम कल्चर के तीन व घुलनशील फास्फोरस जीवाणु के तीन पैकेटों से बीजों को उपचारित करें। बीज को उपचारित करने के लिए 250 ग्राम गुड़ को एक लीटर पानी में गर्म करके घोले और उसमें राइजोबियम कल्चर व फास्फोरस के घुलनशील जीवाणु को अच्छी प्रकार से मिलाकर बीज उपचारित करें। उपचार करने के बाद बीजों को छाया में सुखायें।
किसान भाई चने की बुआई करते समय पौधों का अनुपात सही रखें तो फसल अच्छी होगी। अधिक व कम पौधों से फसल प्रभावित हो सकती है। सही अनुपात के लिए बीज की लाइन से लाइन की दूरी एक से डेढ़ फुट की होनी चाहिये तथा पौधे से पौधे की दूरी 10 सेंटीमीटर होनी चाहिये। बारानी फसल के लिए बीज की गहराई 7 से 10 सेंटीमीटर अच्छी मानी जाती है और सिंचित क्षेत्र के लिए ये गहराई 5 से 7 सेंटी मीटर ही अच्छी मानी जाती है।
चने की खेती की देखभाल कैसे करें
सबसे पहले किसान भाइयों को चने की खेती की बुआई के बाद खरपतवार नियंत्रण पर ध्यान देना होगा क्योंकि खरपतवार से 60 प्रतिशत तक फसल खराब हो सकती है। बुआई के तीन दिन बाद खरपतवार नासी डालें। उसके 10 दिन बाद फिर खेत का निरीक्षण करें यदि खरपतवार दिखता है तो उसकी निराई गुड़ाई करें। इस दौरान पौधों की उचित दूरी का अनुपात भी सही कर लें। अधिक घने पौधे हों तो पौधों को निकालकर उचित दूरी बना लें। साथ ही गुड़ाई कर लें ताकि चने के पौधों की जड़ें मजबूत हो जायें।
सिंचाई प्रबंधन
चने की फसल का अधिक पानी भी दुश्मन होता है। अधिक पानी से पौधों की बढ़वार अधिक लम्बी हो जाती है, जिससे चने कम आते हैं और हवा आदि से पेड़ गिरकर नष्ट भी हो जाते हैं। इसके अलावा खेत में यदि पानी भरता हो तो बरसात होने के समय सावधानी बरतें और जितनी जल्दी हो सके पानी को खेत से निकालें। चने की फसल में बहुत जरूरत होने पर एक सिंचाई कर दें। यदि वर्षा हो जाये तब जमीन की नमी को परखें उसके बाद ही सिंचाई करें।
खाद एवं उर्वरक प्रबंधन
आम तौर पर चने की खेती के लिए 40 किलो फास्फोरस, 20 किलो पोटाश, 20 किलो गंधक, 20 किलो नाइट्रोजन का इस्तेमाल किया जाता है। जिन क्षेत्रों की मिट्टी में बोरान अथवा मोलिब्डेनम की मात्रा कम हो तो वहां पर किसान भाइयों को 10 किलोग्राम बोरेक्स पाउडर या एक किलो अमोनियम मोलिब्डेट का इस्तेमाल करना चाहिये। असिंचित क्षेत्रों में नमी में कमी की स्थिति में 2 प्रतिशत यूरिया के घोल का छिड़काव फली बनने के समय करें।
कीट नियंत्रण के उपाय करें
चने की फसल में मुख्य रूप से फली छेदक कीट लगता है। पछैती फसलों में इसका प्रकोप अधिक होता है। इसके नियंत्रण के लिए इण्डेक्सोकार्ब, स्पाइनोसैड, इमाममेक्टीन बेन्जोएट में से किसी एक का छिड़काव करें। नीम की निबौली के सत का भी प्रयोग कर सकते हैं। इसके अलावा दीमक, अर्द्धकुण्डलीकार, सेमी लूपर कीट लगते हैं। इनका उपचार समय रहते करना चाहिये।
रोग एवं रोकथाम
1.चने की खेती में उकठा या उकड़ा रोग लगता है। यह एक तरह का फफूंद है और यह मिट्टी या बीज से जुड़ी बीमारी है। इस बीमारी से पौधे मरने लगते हैं। इससे बचाव के लिए समय पर बुआई करें। बीज को गहराई में बोयें।
2.ड्राई रूट रॉट का रोग मिट्टी जनित रोग है। इइस बीमारी के प्रकोप से पौधों की जड़ें अविकसित एवं काली होकर सड़ने और टूट जाती है। इस तरह से पूरा पौधा ही नष्ट हो जाता है। बाद में पौधा भूसे के रूप में बदल जाता है।
3.कॉलर रॉट रोग से पौधे पीले होकर मर जाते हैं। यह रोग बुआई के डेढ़ माह बाद ही लगना शुरू हो जाता है। कांबूडाजिम के या बेनोमिल के घोल से छिड़काव करें।
इसके अलावा चांदनी, धूसर फफूंद, हरदा रोग, स्टेम फिलियम ब्लाइट, मोजेक बौना रोग चने की फसल को नुकसान पहुंचाती है।