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कृषि, परिवर्तन को चाहिए तंत्र

Published on: 19-Dec-2020

अभी तक सरकार केवल किसानों की आय दोगुनी करने का मंत्र दे रही है। सरकार को लग रहा है कि तीन कृषि कानूनों से खेती-किसानी की तसबीर और तकदीर बदल जाएगी लेकिन ऐसा संभव नहीं दिखता। इसके लिए जरूरी तंत्र सरकार के पास नहीं है, यदि होता तो हर जिले के कृषि विज्ञान केन्द्र पर उस मॉडल की झलक मिल जाती जिससे किसानों की आय दोगुनी हो सकती।

आय दोगुनी करने का नहीं कोई मॉडल

इस मॉडल का प्रचार-प्रसार भी मन की बात से लेकर दूर दर्शन तक खूब होता। इसी लिए सरकार अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर कारोबारी समझ वाले लोगों को माध्यम बनाकर किसानों की तकदीर बदलना चाहती है, लेकिन किसान कारोबारी सोच को सात दशकों से देखते आ रहे हैं। कारोबारी अपने मुनाफे में किसी तरह की कमी नहीं होने देते। वहीं किसान को उचित कीमत या घोषित एमएसपी देने के लिए न तो खुद प्रतिबद्ध है ना सरकार इसके लिए किसी को पावंद करती है।

गेहूं 15, आटा 35 रुपए किलो क्यों

छोटे से उदाहरण से कारोबारी सोच को समझाने का प्रयास करता हूं। वर्तमान में मंडियों में गेहूं कहीं भी 1700 रुपए कुंतल से ज्यादा नहीं है। बाजार में निकलिए इसी गेहूं का आटा बढ़िया स्लोगनों वाले पैकिटों में 30 से 35 रुपए प्रति किलोग्राम बिक रहा है। इस आटे में अलग से नतो बादाम का पाउडर मिलया गया है ना विटामिन न मिनरल। इसके बाद भी अधिकतम दो रुपए प्रति किलोग्राम की पिसाई, चार से पांच रुपए की पैकिंग में पैक होकर इतना कीमती हो जाता है। वह आटा एमपी के गेहूं का भले नहो लेकिन बिकता इसी लेबिल से है। बात करें लाइसेंसिंग अथॉरिटी यानी एफएसएसआई की तो उसकी बेवसाइट पर साफ लिखा दिखता है कि देश में दूध उत्पादन से 76 प्रतिशत अधिक है। यानी बाजार मिलावटी दूध से अटा पड़ा है और सरकार का तंत्र चंद जगह सेंपिलिंग करके कर्तब्य की इतिश्री किए हुए है। इसी गेहूं का दलिया सामान्य से सामान्य पैकिंग में भी 50 रुपए प्रति किलोग्राम से नीचे नहीं है। चंद पैसे की दलाई और छनाई के बाद दलिया इतना महंगा कैसे हो जाता है।

कोरोनाकाल की आर्थिक राहत किसे मिली

किसान को भगवान न मानने वाला कोई व्यक्ति कह सकता है कि किसान गेहूं क्यों बेचता है। वह आटा, सूजी, दलिया बनाकर बेचे। हां बात बिल्कुल ठीक है लेकिन कोरोना काल में सरकार द्वारा रोजगार श्रजन के लिए उठाए गए कदमों में करोड़ों करोड़ की मदद वही लोग डकार गए जो पहले से इस तरह के कारोबार कर रहे थे। यह अलग बात है कि उन्होंने इसके लिए नाम भर बदल दिया। बैंकर्स को भी इन्हें फंडिंग करना आसान रहता है। धन की वापसी की गारंटी रहती है। नए आदमी के कारोबार के चलने न चलने की कोई गारंटी नहीं रहती।

कूडे के भाव बिका धान, अब महंगा

दूसरा उदाहरण देखिए। धान के ज्यादातर निर्यातक करनाल में रहते हैं या यहां से काम करते हैं। वह सीजन से पूर्व एक होटल में मीटिंग करते हैं। जमकर एन्ज्वाय करते हैं और यहीं डिसाइड कर लेते हैं कि किस मंडी से किस श्रेणी का धान किस भाव खरीदना है। इस बार गुजरे फसल सीजन में गेहूं 1800 रुपए कुंतल बिका। सीजन जाते जाते सरकार ने एफसीआई के गेहूं कीमतें कम कर दीं। दूसरी तरफ कोराना काल में लोगों का पेट भरने के लिए निःशुल्क गेहूं बांटना शुरू कार दिया। तीसरा अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में भी गेहूं सस्ता हो गया। राशन में गेहूं मुफ्त मिलने से गेहूं का उठान बंद हो गया और गेहूं 1600 रुपए कुंतल तक गिर गया। धान के कारोबारियों ने इस गिरावट का संज्ञान लिया और धान का सीजन आते ही गुजरे सालों में 3000 रुपए कुंतल के पार बिक चुके बासमती श्रेणी के धान को 1500 रुपए कुंतल के नीचे खरीदना शुरू कर दिया। अब कितनी भी गिरावट हो उन्हें कोई फर्क नहीं पडे़गा। किसान के पास से धान निकलने के एक पखवाडे़ बाद ही इसकी कीमतें बढ़ गई हैं।

काबू में नहीं आई आज तक प्याज

तीसरा उदाहरण देखिए। मोदी सरकार अपने दूसरे कार्यकाल के आते आते एक मात्र प्याज की कीमतें नियंत्रित नहीं कर पाई। कारोबारी सोच से साफ झलकता है कि देश में प्याज की किल्ललत पैदा करके कीमतें बढ़ाई जाती हैं। कीमतें बढ़ने के बाद महीनों लगता है निर्यात की प्रक्रिया पूरा करने में। इसके बाद कहीं कीमतें नियंत्रित होना शुरू होती हैं। इस दुरावस्था को नियंत्रित करने के लिए तंत्र चाहिए। ना जमीन की कमी है न प्याज लगाने वाले क्षेत्र की कमी है फिर बार बार आम आदमी को प्याज रुलाती है और सरकार भी महीनों की चीख चिल्लाहट के बाद इसे सुन पाती है।

नए कानूनों से विकसित होगा तंत्र

कोई ज्ञानी कह सकता है कि सरकार तीन नए कानूनों के माध्यम से इसी तंत्र को विकसित करना चाहती है लेकिन चंद राजैनैतिक दल भोले भाले किसानों को बरगलाकर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। अरे भाई सरकार स्वाइल हेल्थ कार्ड बनवा चुकी है। उसे पता है कि किस इलाके में कौनसी फसल अच्छी हो सकती है। हमारी देश की मांग कितनी है और कितना निर्यात किया जा सकता है। इसी के अनुरूप फसलें लगाने के लिए किसानों को प्रेरित और प्रोत्साहित किया जाए। गुजरे सीजन में हरियाणा सरकार ने धान की खेती छोड़ने वाले किसानों को प्रोत्साहित किया। इसके परिणाम भी संतोशजनक हैं। छत्तीसगढ़ सरकार गोबर खरीदकर बर्मी कम्पोस्ट बनाने की दिशा में किसानों को प्रेरित कर रही है। इससे लोगों की माली हालत तो सुधरी ही है सरकार की छवि भी सुधरी है। इधर उत्तर प्रदेश सरकार ने गो आश्रय सदनों के अलावा गो शालाओं को करोड़ों करोड़ दिए हैं इसके बाद भी गाय भूखों मर रही हैं। दूसरे राज्यों की अच्छी योजनाओं को अपनाने में भी लोग तौहीन समझते हैं। उन्हें राज्य के लोगों के हितों से ज्यादा खुद के अहं की रखवाली करना ठीक लगता है।

कृषि और किसान को नहीं कोई गारंटी

कृषि क्षेत्र एकमात्र ऐसा क्षेत्र है जहां किसी तरह की गारंटी नहीं। सरकार ने प्रयास किए हैं कि किसानों के पाल्यों को भी गारंटी मिले लेकिन हर मामले में यह संभव नहीं हो पाता। मसलन खाद के साथ बीमा फ्री। इफको कंपनी के 25 बैग यूरिया लेने पर बैग खरीदने के एक माह बाद से किसान  दुर्घटना बीमा का हकदार हो जाता है। एक लाख रुपए तक के इस बीमे की जानकारी किसान को नहीं। वह खेत के लिए खाद लेने जाता है । जो मिला सो ठीक बीमा वाला खाद कहां खोजता फिरे। एक चपरासी के परिवार को उसके जीवित रहते और मर  जाने के बाद भी अनुकम्पा के आधार पर नौकरी, पेंशन आदि की गारंटी होती है लेकिन किसानी के मामले में ऐसा कुछ नहीं। किसान अब अपने बच्चों को किसान नहीं बनाना चाहता। चंद पढ़े लिखे लोग नौकरी छोड़कर बने किसान जैसी भ्रामक खबरें हम देखते हैं लेकिन हकीकत यही है कि हर किसान इनके जितना काबिल नहीं। कारोबारी सोच वाला नहीं कि अपने माल की उचित कीमत पा सके।

सड़कों पर किसान दिवस

आप सभी को किसान दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं। कृषि क्षेत्र में किसानों के हक की लडाई के लिए चैधरी चरण सिंह को सदैय याद किया जाएगा। वह देश के प्रधानमंत्री तक बने। 23 दिसंबर को उनके जन्मदिन को किसान दिवस के रूप में मनाया जाता है। आजादी के बाद यह पहला किसान दिवस होगा जिस पर किसान अपनी ही सरकार के निर्णय को पलटने के लिए सड़कों पर हैं। कई मौसम की मार से काल कबलिति हो चुके हैं। यह अलग बात है कि इनमें ज्यादातर हरियाणा और पंजाब के हैं। इन दोनों राज्यों को ही किसानी के मामले में अग्रणी माना जाता है। किसी भी गाड़ी में इंजन एक दो ही होते हैं। बाकी तो डब्बे ही होते हैं। दो राज्य रेलगाड़ी के डिब्बे का काम कर रहे हैं तो बुरा क्या है। बाकी राज्य भी डिब्बों की भूमिका में हैं। किसानों को सम्मान दिए बगैर इस देश को आगे नहीं बढाया जा सकता। देश की 80 प्रतिशत आबादी परोक्ष या अपरोक्ष रूप से खेती से ही जुड़ी है। चिंताजनक बात यह है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की हठधर्मितावादी नीति ‘मैं जो करूंगा सही करूंगा’ के खिलाफ जारी किसानों की जंग देश को किस ओर ले जाएगी कहा नहीं जा सकता।

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