प्रसंस्करण को बढ़ावा देने की सरकार की नतियां जैव विविधता वाले देश के लिए पर्याप्त नहीं हैं। आलू के सीजन में आलू उत्पादक क्षेत्र में आलू खराब होता है। टमाटर की बात हो या कीमती सेब की। हर फल का यही हश्र होता है। प्रसंस्करण उद्योगों की कमी किसानों को फलों की उचित कीमत नहीं मिलने देतीं वहीं किसानों की एक तिहाई तक फसल खराब हो जाती है। कभी कभार कोस्टल क्राप बाजरा के बिस्किट आदि बनाने की तकनीक विकसित करने की तो कभी सेब का जूस निकाल कर बेकार फेंकी जाने वाली लुग्दी या छूंछ के उत्पाद बनाने की खबरें शुकून देती हैं लेकिन इन्हें यातो सरकार का साथ नहीं मिलता या इन तकनीकों पर काम करने वाले लोगों को मदद नहीं मिलती कि ये तेजी से प्रसार कर सकें। यही कारण है कि यह चीजें देश में आम प्रचलन में नहीं आ पातीं। हालिया तौर पर डा वाई एस परमार औद्यानिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय नौणी हिमाचल प्रदेश के वैज्ञानिकों ने सेब का जूस निकालने के बाद बचने वाले पोमेस यानी अंदरूनी गूदे से कई उत्पाद बनाने की दिशा में काम आगे बढ़ाया है। विश्वविद्यालय के फूड साइंस एंड टेक्नोलॉजी विभाग ने केक, बिस्किट, पोमेस पाउडर एवं जेम आदि उत्पाद तैयार किए हैं। इसके अलावा एप्पल पेक्टिन केमिकल भी तैयार किया है। इससे जैली बनाई जाती है। विदित हो कि सेब उत्पादक राज्य हिमाचल प्रदेश में सेब का जूस निकालने के बाद उसके गूदे को अधिकांशत: यूंही फेंका जाता है। इससे कीमती फल का बड़ा हिस्सा बेकार चलता जाता है। इतना ही नहीं हिमाचल में ग्रीन हाउस, पॉली हाउस की चेन विकसित होने से कम जमीन पर खेती की दिशा में काफी काम आगे बढ़ा है। इसके बाद भी काफी फल रख रखाब के अभाव में सड़ जाते हैं।