ईसबगोल (Plantago ovata Forsk) एक बहुत महत्वपूर्ण औषधीय फसल है। यह औषधीय फसलों के निर्यात में पहले स्थान पर है।
वर्तमान में हमारे देश से 120 करोड़ रुपये का ईसबगोल निर्यात हो रहा है। अमेरिका विश्व में ईसबगोल का सबसे बड़ा उपभोक्ता है।
ईरान, ईराक, अरब अमीरात, भारत और फिलीपीन्स इसका सबसे बड़ा उत्पादक हैं। ईसबगोल उत्पादन और क्षेत्रफल में भारत पहला स्थान रखता है।
भारत में इसका उत्पादन मुख्य रूप से गुजरात, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में लगभग 50 हजार हेक्टर में होता है। मुख्य रूप से नीमच, रतलाम, मंदसौर, उज्जैन और शाजापुर जिले हैं।
ईसबगोल की खेती ठंडी और शुष्क जलवायु में की जाती है। फसल पकते समय ओस और बारिश बहुत घातक होती हैं। फसल कभी-कभी पूरी तरह से नष्ट हो जाती हैं।
इसे अधिक आद्रता और नमीयुक्त जलवायु में नहीं लगाना चाहिए। 20-25 डिग्री सेल्सियस तापक्रम इसके अंकुरण के लिए और 30-35 डिग्री सेल्सियस तापक्रम फसल की परिपक्वता के लिए उपयुक्त हैं।
इसके लिए बलुई दोमट या अच्छे जल निकास वाली दोमट भूमि उपयुक्त हैं, भूमि का pH 7-8 होना चाहिए।
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मिट्टी भुरभुरी और समतल करने के लिए पाटा चलाकर दो बार आडी खडी जुताई और एक बार सुहागा लगाना चाहिए। क्यारियों को खेत के ढलान और सिंचाई की सुविधानुसार लंबा रखें।
क्यारियों की चैडाई 3 मीटर से अधिक नहीं होनी चाहिए और उनकी लम्बाई 8 से 12 मीटर नहीं होनी चाहिए। खेत में जल निकास अच्छी तरह से होना चाहिए। क्योंकि खेत में पानी की कमी ईसबगोल के पौधे के लिए घातक है।
फसल के अच्छे उत्पादन में उन्नत किस्म का अहम् योगदान होता है। अच्छी किस्म की बुवाई करके ही अच्छी उपज प्राप्त की जा सकती है।
इसलिए फसल की बुवाई से पहले अच्छी किस्मों का चुनाव करना बहुत महत्वपूर्ण होता है, ईसबगोल की उन्नत किस्में निम्नलिखित है-
यह एक उन्नत किस्म है जो शुष्क और अर्द्ध-शुष्क क्षेत्रों के लिए अनुकूल है। यह किस्म 110-115 दिनों में पक जाती है और 12-16 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है।
यह बीमारियों और कीटों के प्रति भी कम संवेदनशील होती है।
यह किस्म 110-120 दिनों में पक जाती है और औसतन 12-16 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है। इसकी भूसी उच्च गुणवत्ता वाली होती है और यह तुलासिता रोग के प्रति मध्यम प्रतिरोधी होती है।
यह किस्म 130-135 दिनों में पक जाती है और 10-12 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है। यह किस्म तुलासिता रोग के प्रति अधिक प्रतिरोधी होती है।
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यह किस्म 1983 में अखिल भारतीय समन्वित औषधीय एवं सुगन्धित पौध परियोजना, आणंद, गुजरात से विकसित की गई हैं। इसका उत्पादन 9-10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर लिया जा सकता हैं।
यह किस्म अखिल भारतीय समन्वित औषधीय एवं सुगन्धित पौध परियोजना, चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार द्वारा 1989 में निकाली गई हैं।
इसका उत्पादन 10-12 क्विंटल प्रति हेक्टेयर लिया जा सकता हैं।
ईसबगोल की अगेती बोआई फसल की वानस्पतिक वृद्धि को बढ़ाती है, इससे फसल आडी पड जाती है और मदुरोमिल आसिता का प्रकोप बढ़ जाता है।
यही पर देरी से बुवाई करने पर प्रकोप का वानस्पतिक विकास कम होता है और मानसून पूर्व की वर्षा से बीज झड़ने का अंदेशा बना रहता है।
यही कारण है कि किसान भाई ईसबगोल की बोआई अक्टूबर के अंतिम सप्ताह से नवंबर के दूसरे सप्ताह तक करने के लिए एक उपयुक्त समय है। दिसंबर तक बोआई करने पर उपज बहुत कम होती है।
बुवाई के लिए 4 किग्रा/हेक्टेयर रोग रहित बड़े आकार के बीज का उपयोग करने पर फसल का अच्छा उत्पादन मिल सकता है। बीज दर अधिक होने पर मदुरोमिल आसिता कवक का प्रकोप बढ़ता है, जो उत्पादन को प्रभावित करता है।
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ईसबगोल की छिटकाव पद्धति किसानों में आम है। परंतु इस प्रक्रिया से अंतःसस्य किय्राएं करना मुश्किल होता है। नतीजतन, उत्पादन प्रभावित होता है।
किसान भाई ईसबगोल को कतारों में बोना चाहिए, कतार से कतार की 30 सेमी और पौधे से 5 से.मी. की दूरी रखनी चाहिए।
वांछित बीज दर का उपयोग करने के लिए, बुवाई करते समय बीज में महीन बालू रेत या छनी हुई गोबर की खाद मिलाकर बुवाई करें। बीज की गहराई 2-3 सेमी होनी चाहिए।
यह बीज बहुत गहरा नहीं होना चाहिए। छिटकाव पद्धति से बोने पर मिट्टी को बहुत गहरा नहीं करना चाहिए।